HIMANSHU MOHAN JAISWAL

Short Stories

Book Title : Aakhiri Khat

यह किताब क्यों? पता नहीं। सालों पहले इस किताब की एक कहानी लिखी थी। तब का लिखना और आज के लिखने में बहुत फर्क है। और ये फर्क शायद कहीं-कहीं नज़र भी आएगा। कभी-कभी किसी ख़त को सही पते पर पहुँचने में बरसों लग ही जाते हैं। वो बरसों किसी की पुरानी डायरी में, सूखे गुलाब की पत्तियों के बीच महकता हुआ बंद पड़ा रहता है। उसके कागज़ से वैसी ही खुशबू आने लगती है जैसे किसी बहुत पुरानी किताब के पन्नों से। डायरी के वो पन्ने पलटते वक़्त ऐसा लगता है जैसे जिंदगी ने एक छलांग मार दी हो। इस पार और उस पार के बीच एक गहरी खाई हो, समय की खाई। इस बीच बहुत कुछ सीख लिया होता है और बहुत कुछ भूलने की अभी भी असफल कोशिश कर रहे होते हैं। तब यही ख़त उस गहरी खाई पर पुल का काम करते हैं। मैं वक़्त की उस गहरी खाई को पार कर लेना चाहता हूँ।

किताब का शीर्षक आखिरी ख़त क्यों रखा? शायद इसलिए कि आखिरी ख़त इस किताब की मेरी सबसे पसंदीदा कहानी है। या फिर इसलिए कि हर इन्सान के पास किसी न किसी के लिए शायद वो आखिरी ख़त होता ही है जो उसे किसी को भेजना होता है। फिर चाहे उसने उसे किसी डायरी के पन्नों पर उतारा हो या फिर नहीं।

मुझे आज भी याद है, सालों पहले जब मोबाइल फोन नहीं सिर्फ पी.सी.ओ वाले टेलीफोन बूथ हुआ करते थे तब गर्मी में लम्बी लाइन में लगने से बचने के लिए और सैंकड़ों में पैसों की बर्बादी की वजह से माँ और पिताजी एक दूसरे को ख़त लिखा करते थे जिन्हें अंतर्देशीय पत्र कहा जाता था। हल्के नीले रंग के वो ख़त जिनके ऊपर स्टाम्प लगी होती थी और तीन लाइनों में घर का पता लिखा होता था। एक ख़त को जाने या उसके आने में सात दिन से ज्यादा समय लग जाता था और कभी कभी तो माँ पंद्रह दिनों तक इंतजार करती थी और उसके बाद ख़त मिलता था। फिर उसका जवाब लिखा जाता था। तब डाकिया समाज में अपना एक महत्पूर्ण ओहदा रखते थे।

आज जब मैं अपने हाथ में मोबाइल फोन और इन्टरनेट की इतनी सुविधाओं को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि आज इन्सान तो ज्यादा खुश होगा। दूर रहकर भी सब पास हैं। किसी की याद आयी तो उसे मोबाइल की स्क्रीन पर देख भी लिया और उससे बात भी कर ली। किसी से कुछ कहना हुआ या फिर पूछना हुआ तो बस अपनी उँगलियाँ कुछ सेकंड्स के लिए मोबाइल पर घुमाई और एक मैसेज भेज दिया। कुछ ही सेकंड्स के बाद दो नीले निशानों ने हमें बता दिया कि हमारा मेसेज पढ़ा जा चुका है। पंद्रह दिनों के इंतजार वाले वो नीले अंतर्देशीय पत्रों का स्थान अब दो सेकंड्स के इंतजार वाले नीले निशानों ने ले लिया है तो अब कोई अकेला फील ही नहीं करता होगा।

सच कहूँ तो मुझे अभी भी लगता है कि किसी से अपने मन की गहरी बातों को कहने के लिए खतों का स्थान आज भी कोई नहीं ले सकता। हाँ, पर आज हम उस खतों वाली सभ्यता से शायद बहुत दूर आ चुके हैं।

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